कविता
राजशाही के इस जाल में बच्चा,बूढ़ा,नवजवान हर कोई भागीदार है।
जिस कुर्शी पर तुम बैठे हो वहाँ तक हमने तुम्हें सिड़ी बनकर पहुँचाया है।
तुम पर विश्वास नहीं अटूट विश्वास है, लोकतंत्र जिसका नाम है।
भारत के इतिहास के पन्नो में ,वीरों के धैर्य, शौहाद्र, संविधान का ज़िक्र दिखता है।
जहाँ न्याय और अन्याय के बीच चल रही जंग का समाधान है।
तुम लाख बरसाओ लाठियाँ, तुम लाख बरसाओ गोलियाँ।
ज़ंजीर की कोई ऐसी बेड़ी नहीं, जो तुम्हारे सितम के विरुध, अब हमें रोक पाएगी।
हम उतरेंगे सड़कों पर, हम उतरेंगे हर उस ज़ुल्म पर, जो हुक्मरान कुर्सी पर आकर भूल गये।
जिस सितम के ख़िलाफ़ तुम गए थे, आज तुम वही दोहरा रहे।
सरकार कभी फाँसीवाद सी लगती है तो, कभी मानव विरोधी लगती है।
सरकार जब जनता के बीच डर फैलाए, लोगों के बीच जंग करवाए।
उतार फेंको ऐसे हुक्मरानो को कुर्सी से, ज़मीन पर ले आओ।
जिन्हें सड़कों में उतरी जनता की आवाज़, नज़र नहीं आती।
जिन्हें मोहमद तुग़लक़ तो बनना है, लेकिन अकबर बनना मंज़ूर नहीं।
ग़ुलामी से आज़ाद हुए हम, ना धर्म देखा हमने ना देखीं जाति।
ग़ुलामी से आज़ाद हुए हम और धर्म के ग़ुलाम फिर से बन गए।
नहीं चाहिए ऐसी आज़ादी जो, हमको बाँटे।
अरे नहीं चाहिए ऐसी आज़ादी जो, हमको फिर से टुकड़ों में बाँटे।
ऐसी आज़ादी को हम नकारते है, जिसमें मानवता वाद की हत्या हो।
नहीं चाहिए ऐसी आज़ादी, जो मेरे संविधान के विरुध हो।
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पाँच साल पहले क्यों लिया था इस परिवार ने ऐसा फ़ैसला।
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